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अनासिर -२

कोना एक रुबाई का
कोना एक रुबाई का
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“फलक़”

अब होता जा रहा है हम से दूर ये फलक़,
परिंदों के परों से है मजबूर ये फालक़…

सूरज नही उगता है आँखें तेरी उगती हैं
तमाम शब मेरे शहर का है पूरनूर ये फलक़..

ना पहुँचे वहाँ तलक तो ये बात मान लो,
पहले भी ना मिला था, है अंगूर ये फलक़…

मेरा क़द बढ़ा है यूँ की मैं अर्श हो गया,
हो रहा है मेरे नाम से मश_हूर ये फलक़….

पकते रहेंगे इनमे खाबों के मीठे रोट,
आतिश बढ़ाए आँच, है तंदूर ये फलक़…

“पानी”

साहिल पे जा के रोया, पानी पे बहा पानी,
दरिया ने वजह पूछी, आँखों ने कहा पानी…

रोते रहे वो शब भर इक दूसरे से मिलकर,
आँखों से धुली आँखें, पानी से धुला पानी…

दिल रो रहा है जब से आँखें भरी भरी हैं,
बदल से ज़रा बरसा, गड्ढों मे भरा पानी…

बेरंग था मैं जाना तेरी आमदी के पहले,
कुछ रंग मिला तुमसे, तस्वीर हुआ पानी…

रोती हुई आँखों से भीगे गले का मोती,
पानी से मिला मोती ,मोती मे घुला पानी…

सुकरात ने पिया था जहराब भरा प्याला,
जो मुझको हुआ मारना, तो मैने पिया पानी…

आँखों मे उगी नींदे, नींदों पे उगे सपने,
सपनो पे उगे छाले, छालो पे उगा पानी..

हूँ नज़्म के सzदे मे, गज़लें मेरी दुआ हैं
तुम जाओ इस पते पर, कुएँ की दुआ पानी..

बस्ती को जानती थी मेरे नाम से ही दुनिया,
नंगा यहा खड़ा हूँ ,बस्ती मे लुटा पानी..

मैं बुझ गया था छान से अपनी हँसी खुशी से,
जब आँच बनी बादल, आतिश को मिला पानी..

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