कोना एक रुबाई का
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“ज़मीन”
आँखों मे अपने खाब बो रही है अब ज़मीन,
फसले नही उगी हैं सो रही है अब ज़मीन..
अब बाढ़ नही आती सूखा पड़ा रहता है,
दाल रोटी को भी डुबो रही है अब ज़मीन..
ऐ राम सुन रहे हो तो ले आओ अब उन्हे,
लिए गोद मे सीता को रो रही है अब ज़मीन…
मुद्दत से खुद मे दफ़्न थी, आई है अब बाहर,
अपने बदन की मैल धो रही है अब ज़मीन….
ऐ आँच चल फलक़ पे इक घर बना ले अब,
आतिश के शहर मे तो खो रही है अब ज़मीन…
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