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एक ग़ज़ल जो मेरी लिखी हुई है ..फिर भी मेरी नहीं है

कोना एक रुबाई का
कोना एक रुबाई का
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हम सियारों की तरह हैं , और हैं रंगे हुए
मिल गया हम्माम हमको और हम नंगे हुए

हम खबर्चीं हैं , हमे सेहत खबर से ही मिले
लो उधर दंगे हुए और हम इधर चंगे हुए

घर में रोटी की जगह जब बम मिला बच्चों को तब
एक बलवाई के घर उस रात में दंगे हुए

अरसा हुआ इक मखमली बारिश नहीं देखी यहाँ
मुद्दत हुई दिल के फलक पर खूब सतरंगे हुए

घर जलाते हैं , जो करते थे उजाले इश्क के
आंच आतिश के तरीके तौर बेढंगे हुए

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