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फ़लक पर एक भी उल्का नहीं है

कोना एक रुबाई का
कोना एक रुबाई का
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अदा है, नाज़ है, नखरा नहीं है
मेरी जानां है वो फितना नहीं है

किसी जिद पे अड़े बच्चे के माफिक
ये सन्नाटा मेरी सुनता नहीं है

गली ही भौंकती है आज मुझ पर
यहाँ तो एक भी कुत्ता नहीं है

खुनक सी, नर्म सी, पुरनूर बातें
ये तेरी बात का लहजा नहीं है

वो रूठी है समन्दर से कुछ ऐसे
के मारा पाँव तो बिखरा नहीं है

तेरी आँखों में आंसू गर नहीं है
फ़लक पर एक भी उल्का नहीं है

अभी भी चाँद पे चरखा चले है
वहाँ पर आदमी उतरा नहीं है

न सुनना आंच आतिश की ज़रा भी
वो मुझसा है मगर अच्छा नहीं है

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