कोना एक रुबाई का
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मेरे छत की तलहटी में जमी है धूप की काई
जहां पर दोपहर से बात करती है ये तन्हाई
ये मुझसे बात करती हैं तेरी बाँहों के बारे में
हवाएं रोज़ कहती हैं कि तुझसे है शनासाई*
वो दिन बचपन के अच्छे थे कि जब हम तुमसे मिलते थे
न था बदनामियों का डर , न ही थी उसमे रुसवाई
मेरी गंगा ..! जटाओं से ज़रा पूरी निकल के आ
ये नदियों की नहीं सुनती है, दुनिया भी है हरजाई
तुझी से सब करेंगे आंच उसकी हर शिकायत अब
कहीं आतिश के जुर्मों की नहीं होती है सुनवाई
शनासाई*-jaan pehchaan
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