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उल्का

कोना एक रुबाई का
कोना एक रुबाई का
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तुम चमकती थी
जब सितारों सी
पड़ा रहता था
मैं समंदर सा
गहरा कर दिया था
और मुझको
तुम्हे छूने के
उस तसव्वुर ने…..

लेकर चाँद का
सहारा भी
तुम्हे पाने की
की कोशिश मैने,
ज्वार बन के
पहुँचा था तुम तक…

वो सहारा भी
दिलासा निकला
ज़रा सच्चा सा
और ज़रा फ़र्ज़ी
एक भाटे ने
मेरी लहरों को
खींच कर फिर
ज़मीं पे ला पटका…

सितारों का ये
मुस्तकबिल* है जानां
उनका टूटना
इक दिन तय है
एक उल्का की तरह
देखो ना
तुम उतरी हो
मुझ समंदर मे
तुम्हारी आँच से
ये क्या हुआ है
उबल रहा हूँ बस
उबल रहा हूँ,
भाप नज़मों की
उठ रही है अब
अब्र नगमों के
बनने लगे हैं…

mustaqbil _bhavishya

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