कोना एक रुबाई का
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वो इक जंगल में जा कर बस गया था
वो इंसानों से कुछ ऐसे खफा था
वो सब देखे उसे कोई न देखे
कुछ ऐसी खिडकियों से देखता था
थक के जब बैठ जाती थीं वो नज़रें
मैं अपनी बात के पर खोलता था
खफा था मुझसे वो ताउम्र यूँ ही
कई बातों में तो बिलकुल खुदा था
जहां पर आंच ने छोड़ा वहां पर
कोई आतिश नहीं बस कोहरा था
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