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कुछ किरदार ऐसे होते हैं कि उनके आस पास कहानियाँ खुद ब खुद बन जाती हैं … ऐसा ही एक किरदार लगा मुझे “गुइदो ” ..एक इतावली फिल्म “लाइफ इज ब्यूटीफुल ” का यह चरित्र ज़िन्दगी से भरा पड़ा है ठीक उसी तरह जैसे हमारा “आनंद” ..आनंद याद तो होगा आप सबको …हृषिकेश मुखर्जी की बनाई फिल्म “आनंद” का मुख्य चरित्र… बहरहाल बात करते हैं गुइदो की…गुइदो एक वेटर है ..और वो एक गैर मजहबी लड़की से प्यार करता है जो ऊँचे खानदान से है और एक टीचर है..लड़की के घर वाले नहीं चाहते कि वो गुइदो से ब्याह करे लेकिन वह लड़की को उसके घर से भगा ले आता है और शादी कर लेता है ..सुनने में तो ये कहानी किसी बॉलीवुड की “राज वाली कहानिओं” जैसी ही लगती है …पर गुइदो राज नहीं है … फिल्म का यह रोमांटिक हिस्सा जिस तरह से फिल्माया गया है ..वो आश्चर्यजनक है .. गुइदो में जादू नज़र आने लगता है .. इंटरवल के बाद फिल्म अलग ही मोड़ लेती है .. गुइदो और डोरा ( गुइदो की बीवी ) को एक बेटा होता है जिसका नाम है जोशुआ ..सुखी परिवार है ..
लेकिन तभी यह परिवार द्वितीय विश्व युद्ध का शिकार हो जाता है .. इस परिवार को concentration camp ले जाया जाता है ..जहां नाज़ी सैनिक सिर्फ ज़वान लोगों को जिन्दा रखते हैं … डोरा और गुइदो को वहाँ अलग अलग रखा जाता है ..गुइदो जोशुआ को अपने पास छुपा लेता है ..और जोशुआ को यह यकीन दिलाता है की यह कैंप एक खेल है…१००० पॉइंट्स मिल के उन दोनों लोगों को इकठ्ठा करने होंगे ..अगर वो इस खेल में आखिर तक इन सनिकों की नज़र में नहीं आया तो वह ये खेल जीत जायेगा और उसे एक टैंक मिलेगा …… और अगर जोशुआ उसे माँ के पास जाने की बात, भूख लगने की बात करेगा तो भी वो लोग यह खेल हार जायेंगे.. अब इस पूरी फिल्म में..गुइदो जोशुआ को छिपाते हुए ..डोरा को ढूंढता है …और गुइदो का किरदार निभाने वाले अभिनेता /निर्देशक रोबेर्तो बेनिगनी अभिनय की नयी ऊंचाई को छूते हैं ..
ह़र तरफ मौत फैली है ..इस बीच गुइदो की जीवन्तता कई जगह आप की आँखों में पानी भर देगी ..ठीक वैसे ही जैसे आनंद अपने भीतर मौत लिए चलता है लेकिन हंसाने की कोई जगह नहीं छोड़ता.. लेकिन इस हास्य के साथ जो करुणा मिली हुई है उस तक नज़र पहुँचते ही दिल उदास हो जाता है .. आनंद की तरह गुइदो भी इस फिल्म के आखिर में मर जाता है लेकिन यकीन करना मुश्किल होता है की वह मर गया..गुइदो अपने मरने के बाद भी अपने बेटे जोशुआ को यह भरोसा दिलाने में कामयाब रहता है की ये सब एक खेल है .. गुइदो के मरने की अगली सुबह जोशुआ को concentration कैंप से छुड़ा लिया जाता है ..और वह सेना के टैंक पे ही चढ़ के वहाँ से जाता है .टैंक पे चढ़े हुए जोशुआ का अत्मिविश्वास सातेवं आसमान पे होता है क्यूंकि उसे लगता है कि वह ये खेल जीत चुका है ..कैंप से जाते हुए रस्ते में उसकी माँ डोरा मिलती है ..
बरसों बाद उसे समझ आता है कि उसके पिता ने उसके मन में डर न आने देने के लिए के क्या किया और कैसे उसे बचाए रखा..
हमारे बॉलीवुड में भी “मुसीबत के पल को एक खेल” बताते हुए एक फिल्म बनायीं गयी थी …ता रा रम पम पम ..लेकिन इस फिल्म की करुणा भी हास्यास्पद लगी मुझे …. यह फिल्म लाइफ इज ब्यूटीफुल के आस पास भी नहीं पहुँचती …
कभी मूड ख़राब हो .. कुछ अच्छा न लग रहा हो ..या कुछ अच्छा देखना चाहते हों तो लाइफ इज बेअतुफुल आप को अच्छी लगेगी ..गुइदो का चरित्र हमेशा याद रहेगा..(नाम याद रहे या न रहे..हेहे हेहे ..मैंने भी नेट से ढूंढ़ के निकाला..कैसा नाम है न..गुइदो .. पर नाम पे क्या रखा है ..क्यूँ नहीं रखा भई …अगर नहीं रखा होता तो ..शेक्सपियर के इस कथन के नीचे उनका नामक क्यूँ लिखा होता..:D ..उफ़..मैं मज़ा ख़राब कर रहा हूँ ..आप फिल्म का मज़ा लीजिये ..मैं चलता हूँ ..थोड़ी देर और रहा तो और बकवास करूँगा… ) …
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